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कविता

कुछ तो ऐसा करो

मनीषा जैन


अपने अस्त्रों को जरा लगाम दे दो
पक्षी यहाँ आराम कर रहे है
थोड़ा कम शोर मचाओ
चींटियाँ यहाँ कतार में है
फुसफुसा कर बोलो जरा
रात भर खाँसती दादी की अभी आँख लगी है
बंदूक को नहीं
समय की रेत को कस कर पकड़ो
कहीं हाथ से फिसल न जाय

कुछ तो ऐसा करो
कि स्त्रियों की आँख के पानी को
जरा तो पोंछ सको
कि माँएँ लज्जित न हो
ऐसे बेटे पैदा कर
कि उनका विश्वास खत्म न हो जाए
पुरुष जाति पर से

तुम कुछ तो ऐसा करो
कि दुधमुँहे बालक यतीम न हो
उनकी बचपन की लोरी,
स्कूल की तख्ती
छूट न जाए

कुछ तो ऐसा करो
कि उम्मीद की चिड़िया चहकती रहे
या कि ये कहो
तुमसे कुछ उम्मीद ही न रखें
या कि पूरे आदमखोर और वहशी हो चुके हो तुम।

(इराक में उठी बंदूकों के विरोध में)
 


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